साओ पाउलो के पास, अक्टूबर 1980 का एक दिन. एक आदमी अपने बाथरूम में मरा पड़ा है. उसका नाम है गुस्ताव वागनर. नाज़ी यातना शिविर के अपने कार्यकाल के दौरान उसे "सोबिबोर के शैतान" के नाम से जाना जाता था. पुलिस उसकी मौत को खुदकुशी बता रही है.
नाज़ी यातना शिविर में हत्याएं कराने के बाद सामान्य जीवन जीना कैसे संभव है? यहूदी नरसंहार के तीन दशक बाद, श्लोमो श्मायज़नर की ब्राज़ील में गुस्ताव वागनर से मुलाकात होती है, वही व्यक्ति जिसने उसे पहले प्रताड़ित किया हुआ है. कुछ समय बाद, पूर्व एसएस अधिकारी मृत पाया जाता है. क्या श्लोमो श्मायज़नर का इससे कोई लेना-देना है, जो यातना शिविर से जीवित बचे चंद लोगों में से एक है? या फिर देर से ही सही, लेकिन यह एक प्राकृतिक न्याय है?
सोबिबोर यातना शिविर में , श्लोमो श्मायज़नर का भयावह काम था मारे गए यहूदियों के दांतों में जड़े सोने से नाज़ियों के लिए गहने बनाना. गुस्ताव वागनर, जिसे " सोबिबोर के शैतान" के नाम से जाना जाता है, वो एक कट्टर नैशनल सोशलिस्ट था. उसे दूसरों को दुख पहुंचाने में बहुत मज़ा आता था और वह अचानक कुछ भी कर देता था, इसलिए लोग उससे डरते थे. सोबिबोर में लगभग 2,50,000 लोगों की हत्या की गई. बहुत कम लोग वहां से भागने में कामयाब रहे, जिनमें से एक श्लोमो भी था. फिर 36 साल बाद वह अपने प्रताड़क से दोबारा मिला, दुनिया के दूसरी हिस्से, ब्राज़ील में.
इस फिल्म का वास्तविक अपराध वाला प्रारूप दर्शकों को अपराधबोध, प्रतिशोध और न्याय की दुनिया में ले जाता है. श्लोमो श्मायज़नर को जिस प्रश्न से जूझना पड़ा वह आज भी बहुत प्रासंगिक है. क्या इतने बड़े पैमाने पर अपराधों का प्रायश्चित संभव है?
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