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लाश होने से पहले आकाश हो जाओ, रात होने से पहले प्रकाश हो जाओ || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2024)

शास्त्रज्ञान 32,118 lượt xem 3 weeks ago
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वीडियो जानकारी: 14.01.24, संत सरिता, ग्रेटर नॉएडा

Title : लाश होने से पहले आकाश हो जाओ, रात होने से पहले प्रकाश हो जाओ || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2024)

📋 Video Chapters:
0:00 - Intro
1:32 - जीवन को व्यर्थ होने से कैसे बचाएँ?
13:45 - धर्म और अधर्म क्या हैं?
20:34 - खुलकर कैसे जिएं?
29:23 - मुक्त पुरुषों से सीखें
39:57 - अपने जीवन की व्यर्थता को कैसे पहचानें?
49:54 - प्राचीन इतिहास से क्या सीखें?
54:04 - वास्तविक और झूठी शांति में क्या अंतर है?
1:02:32 - अवसर गँवाया, कुछ न पाया
1:06:07 - बोझ-मुक्त जीवन का आनंद
1:19:54 - झूठी खुशी और बनावटी हँसी
1:25:01 - छोटी-छोटी बातों में उलझा जीवन
1:26:41 - मौत और मंज़िल
1:33:09 - लाश होने से पहले आकाश हो जाएँ
1:39:02 - भजन
1:46:53 - समापन

विवरण:
इस वीडियो में आचार्य जी ने जीवन की वास्तविकता और उसके अर्थ पर गहन विचार प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने बताया कि हम अपने पूर्वजों, दादा-परदादा के नाम और चेहरों को भूल जाते हैं, और यह दर्शाता है कि जीवन में हमारी पहचान और स्मृति कितनी क्षणिक है। आचार्य जी ने यह भी कहा कि हम औसत और साधारण जीवन जीते हैं, जिसमें न तो कोई विशेषता होती है और न ही कोई उद्देश्य।

उन्होंने यह प्रश्न उठाया कि क्या हम इस तरह के जीवन के लिए पैदा हुए थे? जीवन का असली उद्देश्य आत्मज्ञान और अपनी उच्चतम संभावनाओं को पहचानना है। आचार्य जी ने बताया कि हम अपनी सुरक्षा के लिए डर के कारण सीमाओं में बंधे रहते हैं, जबकि असली जीवन का अनुभव करने के लिए हमें अपने डर को पार करना होगा।

आचार्य जी ने यह भी कहा कि जीवन में हमें चुनौतियों का सामना करना चाहिए और अपने भीतर की महानता को पहचानना चाहिए। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि जीवन का असली आनंद और उद्देश्य केवल भौतिक सुखों में नहीं है, बल्कि आत्मा की ऊँचाई में है।

प्रसंग:
रैन दिवस पिय संग रहत हैं
रैन दिवस पिय संग रहत हैं,
मैं पापिन नहिं जाना ॥

मात पिता घर जन्म बीतिया,
आया गवन नगिचाना।
आजै मिलो पिया अपने से,
करिहो कौन बहाना ॥ १ ॥

मानुष जनम तो बिरथा खोये,
राम नाम नहिं जाना।
हे सखि मेरो तन मन काँपै,
सोई शब्द सुनि काना ॥ २ ॥

रोम-रोम जाके परकाशा,
कहैं कबीर सुनो भाई साधो,
करो स्थिर मन ध्याना ॥ ३ ॥

~ कबीर साहब

शब्दार्थ: रैन दिवस- रात दिन; गवन- संसार से जाने की दशा; नगिचाना: निकट आना; विरथा- व्यर्थ

~ जैसी जिंदगी हम जी रहे हैं, उसकी व्यर्थता हमारे सामने आईने की तरह खड़ी की जा सके, यही बोध है।

~ सुरक्षा, ढर्रे, सुरक्षा, यही हमारा जीवन है। किसी तरह बचे रह जाए, बचे रह जाए।

~जब ज़िन्दगी हमारी इतनी घुटी हुई है, तो कम से कम एक घुटी हुई ही सही, पर चीख सुनाई तो दे I

~प्राकृतिक जीवन क्या होता है? यही पैदा हुए हो, जो शरीर ने सिखाया, वो करा I और फिर समय पूरा हो गया, या कोई सहयोग आ गया, मर गए I

संगीत: मिलिंद दाते
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