भार्गववंश के मूलपुरुष महर्षि भृगु जिनको जनसामान्य
ॠचाओं के रचईता एक ॠषि, भृगुसंहिता के रचनाकार,
यज्ञों मे ब्रह्मा बनने वाले ब्राह्मण और त्रिदेवों की परीक्षा में
भगवान विष्णु की छाती पर लात मारने वाले मुनि के नाते
जानता है।परन्तु इन भार्गवों का इतिहास इस भूमण्डल पर
एशिया,अमेरिका से लेकर अफ़्रीका महाद्वीप तक बिखरा
पड़ा है।
7500 ईसापूर्व प्रोटोइलामाइट सभ्यता से निकली
सुमेरु सभ्यता के कालखण्ड मे जब प्रचेता ब्रह्मा बने थे
।यहीं से भार्गववंश का इतिहास शुरु होता है।महर्षि भृगु
का जन्म प्रचेता ब्रह्मा की पत्नी वीरणी के गर्भ से हुआ था ।
अपनी माता के गर्भ से ये दो भाई थे। इनके बडे भाई का
नाम अंगिरा था। प्रोटोइलामाइट सभ्यता के शोधकर्ता
पुरातत्वविदों ने जिस सुमेरु-खत्ती-हिटाइन-क्रीटन सभ्यता
को मिश्र की मूल सभ्यता बताया है,वास्तव में वही भार्गवों
की सभ्यता है। प्रोटोइलामाइट सभ्यता चाक्षुष मनुओं और
उनके पौत्र अंगिरा की विश्वविजय की संघर्ष गाथा है।
महर्षि भृगु का जन्म जिस समय हुआ,उस समय इनके
पिता प्रचेता सुषानगर जिसे कालान्तर मे पर्शिया,ईरान
कहाजाने लगा इसी भू-भाग के राजा थे। इस समय ब्रह्मा
पद पर आसीन प्रचेता के पास उनकी दो पत्नियां रह रहीं
थी।पहली भृगु की माता वीरणी दूसरी उर्वसी जिनके पुत्र
वशिष्ठ जी हुए।
महर्षि भृगु के भी दो विवाह हुए,इनकी पहली पत्नी
दैत्यराज हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या थी।दूसरी पत्नी
दानवराज पुलोम की पुत्री पौलमी थी।
पहली पत्नी दैत्यराज हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या देवी से
भृगु मुनि के दो पुत्र हुए,जिनके नाम शुक्र और त्वष्टा रखे
गए। भार्गवों में आगे चलकर आचार्य बनने के बाद शुक्र को
शुक्राचार्य के नाम से और त्वष्टा को शिल्पकार बनने के बाद
विश्वकर्मा के नाम से जाना गया। इन्ही भृगु मुनि के पुत्रों को
उनके मातृवंश अर्थात दैत्यकुल में शुक्र को काव्य एवं त्वष्टा
को मय के नाम से जाना गया है।
भृगु मुनि की दूसरी पत्नी दानवराज पुलोम की पुत्री पौलमी
की तीन संताने हुई,दो पुत्र च्यवन और ॠचीक तथा एक
पुत्री हुई जिसका नाम रेणुका था । च्यवन ॠषि का विवाह
गुजरात के खम्भात की खाडी के राजा शर्याति की पुत्री .
सुकन्या के साथ हुआ । ॠचीक का विवाह महर्षि भृगु
ने गाधिपुरी (वर्तमान उ0प्र0 राज्य का गाजीपुर जिला)के
राजा गाधि की पुत्री सत्यवती के साथ एक हजार श्यामकर्ण
घोडे दहेज मे देकर किया । पुत्री रेणुका का विवाह भृगु मुनि
ने उस समय विष्णु पद पर आसीन विवस्वान (सूर्य)के साथ
किया । इन शादियों से उनका रुतबा भी काफ़ी बढ गया
था।
कालान्तर मे अपनी
ज्योतिष गणना से जब उन्हे यह ज्ञात हुआ कि इस समय
यहां प्रवाहित हो रही गंगा नदी का पानी कुछ समय बाद
सूख जाएगा तब उन्होने अपने शिष्य दर्दर को भेज कर उस
समय अयोध्या तक ही प्रवाहित हो रही सरयू नदी की धारा
को यहाँ मंगाकर गंगा-सरयू का संगम कराया। जिसकी
स्मृति मे आज भी यहां ददरी का मेला लगता है।
धरती पर पहली बार महर्षि भृगु ने ही अग्नि का उत्पादन
करना सिखाया था। हालांकि कुछ लोग इसका श्रेय अंगिरा
को देते है। भृगु ने ही बताया था कि किस तरह अग्नि को
प्रज्वलित किया जा सकता है और किस तरह हम अग्नि का
उपयोग कर सकते हैं इसीलिए उन्हें अग्नि से उत्पन्न ऋषि
मान लिया गया। भृगु ने संजीवनी विद्या की भी खोज की
थी। उन्होंने संजीवनी बूटी खोजी थी अर्थात मृत प्राणी को
जिंदा करने का उन्होंने ही उपाय खोजा था। परंपरागत रूप
से यह विद्या उनके पुत्र शुक्राचार्य को प्राप्त हुई। भृगु की
संतान होने के कारण ही उनके कुल और वंश के सभी लोगों
को भार्गव कहा जाता है। हिन्दू सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य
भी भृगुवंशी थे।
भृगु ने संजीवनी विद्या की भी खोज की थी। उन्होंने
संजीवनी-बूटी खोजी थी अर्थात मृत प्राणी को जिन्दा करने
का उन्होंने ही उपाय खोजा था। परम्परागत रूप से यह
विद्या उनके पुत्र शुक्राचार्य को प्राप्त हुई।
भार्गवों के आठ पक्षों के प्रवर इस प्रकार हैं। वत्स पक्ष के
प्रवर भृगु, च्यवन, अप्नवान, ऊर्व और जगदग्नि हैं। विद पक्ष
के प्रवर भृगु, च्यवन, अप्नवान, ऊर्व और बिद हैं। आर्ष्टिषेण
पक्ष के प्रवर भृगु, च्यवन, अप्नवान आर्ष्टिषेण और अनूप हैं।
शौनक पक्ष के प्रवर भृगु, शुनहोत्र और गृत्ममद हैं। वैन्य
पक्ष के प्रवर भृगु, वेन और पृथु हैं। मैत्रेय पक्ष के प्रवर भृगु,
वध्यश्व और दिवोदास हैं। यास्क पक्ष के प्रवर भृगु, वीतहव्य
और सावेतस हैं। वेदविश्वज्योति पक्ष के प्रवर भृगु, वेद और
विश्व ज्योति हैं।
महर्षि भृगु के वंशजों ने यहां से लेकर अफ़्रीका तक राज्य
किया । जहाँ इन्हे खूफ़ू के नाम से जाना गया ।यही से
मानव सभ्यता विकसित होकर आस्ट्रेलिया होते हुए
अमेरिका पहुची,अमेरिका की प्राचीन मय-माया सभ्यता
भार्गवों की ही देन है।