यूक्रेन का कुप्यांस्क शहर उन पहले शहरों में से था जिसे रूसियों ने हथिया लिया. छह महीने बाद यूक्रेन ने उसे फिर से आज़ाद कराया. इस खंडहरनुमा शहर में लोग अपराधबोध और मिलीभगत के बीच जूझ रहे हैं.
रूसी सेना ने कुप्यांस्क पर बिना एक भी गोली चलाए कब्ज़ा किया. शहर के मेयर ने 30,000 लोगों के इस शहर को रूसियों को यूं ही सौंप दिया. इस फैसले से कुछ लोग खुश नहीं थे. एक बहादुर स्थानीय राजनेता ने प्रतिरोध शुरू किया और यूक्रेनी झंडे के तले विरोध-प्रदर्शन आयोजित किया. रूस ने विद्रोह पर हिंसक कार्रवाई शुरू कर दी. जो कोई भी रूसी सेना के खिलाफ बोलने की कोशिश करता, उसे हमेशा के लिए रूसी यातना गृहों में "चुप" कराए जाने का खतरा बना रहता. खुले प्रतिरोध को तेजी से कुचल दिया गया, जिससे आंदोलन रुक गया. इस बीच रूस ने शहर के लिए अपनी योजनाओं को लागू करना शुरू कर दिया. यह खारकिव के आसपास के कब्ज़े वाले क्षेत्रों के लिए एक प्रशासनिक केंद्र बन गया. कब्ज़े वाले अधिकारियों ने रूसी पासपोर्ट बांटे और कुप्यांस्क शहर को "रूस्की मीर" यानी "रूसी जगत" में बदल दिया.
छह महीने बाद, यूक्रेन ने कुप्यांस्क पर फिर कब्ज़ा कर लिया. केंद्र से 10 किलोमीटर दूर तैनात रूसी सैनिकों ने शहर पर लगभग रोज़ गोलाबारी कर, शहर का हुलिया ही बदल दिया. कई निवासी भाग गए. लेकिन जो लोग रुके, उनके लिए सवाल बना हुआ है: कब्ज़े के अनुभवों के बाद जीवन कैसे जिया जाए?
यूलिया बायर, मथियास बोएलिंगर, लुईस ज़ांडर्स और हन्ना सोकोलोवा की यह फिल्म कब्ज़ा सहने वालों की नज़र से कब्जे की घटना को दिखाती है. डॉक्यूमेंट्री में उन निवासियों से बात की गई, जिन्होंने रूस के साथ मिलीभगत की. साथ ही उन लोगों की भी बात सुनी, जिन्होंने विरोध किया, चाहे खुले तौर पर हो या गुप्त रूप से. यह कब्ज़े के तहत जीवन की ऐसी ही रूपरेखा दर्शाती है. साथ ही अपराधबोध और अपराध में साथ देने के बड़े सवालों को खंगालती है.
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