सुखदेव भगत जी ने संसद में सरना कोड का मुद्दा उठाया। उससे पहले शपथ के समय ही जोबा माझी ने सरना कोड की बात रखी थी। प्रथम दृष्टया देखने सुनने में लगता है की सुखदेव भगत जी का यह प्रयास आदिवासियों के लिए एक बड़ी मांग को पूरा करने के लिए उठाया गया कदम है। लेकिन धार्मिक जनगणना के ऊपर मैंने जितना मैंने अध्ययन किया है, उस हिसाब से सरना धर्म कोड के लिए जो बातें हैं संसद में उन्होंने कही वह बहुत ही सतही बातें कही गईं। अपनी बात को रखने के लिए उन्होंने एस्ट्रोएशियाटिक मुंडा परिवार के इतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक पक्ष को नजर अंदाज किया। साथ ही सेंसस के आंकड़े को भी नज़रअन्दाज़ किया। जनगणना कार्यालय द्वारा जो जवाब सरना कोड देने के लिए दिया गया उसको भी काउंटर नहीं किया। बाघ बालू का उदाहरण देकर उन्होंने सिर्फ अपना एक ड्यूटी राजनीतिक रूप से निभाने का प्रयास किया, ऐसा प्रतीत होता है।
सेन्सस ऑफिस के अनुसार 1991 में सरना धर्म लिखने वाले लोगों की संख्या 18,20,468 थी, जो सन् 2001 में बढ़कर 40,75,246 हो गयी। इस दर्मियान दशकीय वृद्धि दर 124% रही, यह वृद्धि दर सभी धर्मों से बहुत ज्यादा थी। 1991 में सरना धर्म देश की कुल जनसंख्या का 0.2% थी, और 2001 में जैन धर्म के सम्कक्ष बढ़कर 0.4% हो गई। 2011 के सेंसस में सरना धर्म लिखने वाले कुल 49,57,467 हो गयी, जो जैन धर्म लिखने वाले 44,51,753 से 5,05,714 ज्यादा है। यानी वृद्धि दर 21.64% रही। झारखण्ड में सबसे ज्यादा आदिवासी 47.79% ने सरना लिखा, तो 37.55% आदिवासियों ने हिंदू, और 15.48% आदिवासियों ने ईसाई लिखा था। 2001 के सेन्सस के अनुसार सरना धर्म का फैलाव देश के 21 राज्यों में था, जबकि 2011 का सेंसस में इसका प्रसार सभी 28 राज्यों में हो गया, साथ ही सरना धर्म लिखने वालों की संख्या जैन धर्म लिखने वालों से भी अधिक हो गयी।
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