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श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 13 श्लोक 12 उच्चारण | Bhagavad Geeta Chapter 13 Verse 12

Kusum Maru 103 2 weeks ago
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🌹ॐ श्रीपरमात्मने नमः 🌹 अथ त्रयोदशोऽध्यायः ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यमि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते। अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते॥12॥ ज्ञेयम्=जानने योग्य,यत्=जो,तत्=उस(परमात्मतत्त्व)को, प्रवक्ष्यमि=भली-भाॅंति कहूॅंगा,यत्=जिसको,ज्ञात्वा=जानकर, अमृतम्=अमरता का,अश्नुते=अनुभव कर लेता है,अनादिमत्= अनादिवाला,परम्=परम,ब्रह्म=ब्रह्म है,न सत्=न सत् (ही),तत्= उसको,न असत्=न असत् (ही),उच्यते=कहा जाता है। भावार्थ - जो जानने योग्य है तथा जिसको जानकर मनुष्य अमरता का अनुभव कर लेता है उस परमात्मतत्त्व को मैं भली-भाॅंति कहूॅंगा। वह अनादि वाला परम ब्रह्म न सत् ही कहा जाता है न असत् ही कहा जाता है। व्याख्या - अभी तक भगवान् ने ज्ञान क्या है और अज्ञान क्या है- यह बतलाया और अब क्या जानना चाहिए यह बतलाते हुए कहते हैं कि "ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यमि"- भगवान् यहाॅं 'ज्ञेय तत्त्व' का वर्णन करते हुए कहते हैं कि इस 'ज्ञेय' को शास्त्र की भाषा में 'ब्रह्म' कहा गया है। यह ब्रह्म स्वरूप, परमात्म स्वरुप कैसा है? इसको क्यों जानना है? और इसके जानने से क्या फल मिलेगा? यह सब मैं तुम्हें अच्छी प्रकार से बतलाऊॅंगा। "यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते"- ब्रह्मज्ञान अथवा आत्मज्ञान का फल क्या है? यह वास्तव में अमृततत्त्व का ज्ञान है। जिसको जानने के बाद अमृत का पान होता है अर्थात् परमानन्द प्राप्त होता है। (लाक्षणिक अर्थ से यहाॅं पर अमृत लिया है) ज्ञान मिलने के बाद अमृतपान के समान आनन्द होता है। देहभाव के कारण हमने स्वयं को मृत्यु के चंगुल में फॅंसा हुआ मान लिया है,जीव सबसे ज्यादा मृत्यु से डरता है। भागवत सुनने के बाद परीक्षित महाराज कहते हैं कि अब मुझे मृत्यु का भय नहीं रहा,मन का क्षोभ चला गया। वास्तव में तो स्वयं पहले से ही अमर है परंतु स्वयं को जन्मने मरने वाला मान लिया है। परमात्मतत्त्व को जानने से यह भूल मिट जाती है और अपने वास्तविक स्वरूप की पहचान हो जाती है अर्थात् अमरता का अनुभव कर लेता है। भगवान् कहते हैं कि अब मैं तुम्हें उस ज्ञान के बारे में बतलाऊॅंगा जिसको जानने के बाद भय,मोह, शोक इत्यादि विकार निकल जाते हैं। जिसका ज्ञान होने पर मृत्यु सदा के लिए समाप्त हो जाती है,मृत्यु का ही मरण हो जाता है। यहाॅं पर अमृत शब्द का अर्थ वह नहीं है जिसका स्वर्ग के देवता प्राशन करते हैं। "अनादिमत्"- भगवान् कहते हैं कि उसका कोई आदि नहीं है। जिसका आदि है, उसका अंत भी होगा- यह सृष्टि का नियम है। जिसका जन्म है उसका मरण भी होगा। भगवान् बहुत सरल भाषा में उस परब्रह्म तत्त्व के ज्ञान की मीमांसा यहाॅं कर रहे हैं,उसकी विशेषताऍं यहाॅं बतला रहे हैं जिसको जानना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। "परं ब्रह्म"- यह ब्रह्म परम् है, सर्वोच्च है। 'ब्रह्म' प्रकृति को भी कहते हैं,वेद को भी कहते हैं परंतु "परम् ब्रह्म" तो एक परमात्मा ही है जिससे बढ़कर दूसरा कोई व्यापक,निर्विकार,सदा रहने वाला तत्त्व नहीं है। "न सत्तन्नासदुच्यते"- उस तत्त्व को सत् भी नहीं कह सकते और असत् भी नहीं कह सकते। जैसे पृथ्वी पर रात और दिन यह दो होते हैं इनमें भी दिन के अभाव को रात और रात के अभाव को दिन कह देते हैं परंतु सूर्य में रात और दिन यह दो भेद नहीं होते कारण कि रात तो सूर्य में है ही नहीं और रात का अत्यंत अभाव होने से सूर्य में दिन भी नहीं कह सकते क्योंकि दिन शब्द का प्रयोग रात की अपेक्षा से किया जाता है यदि रात की सत्ता न रहे तो न दिन कह सकते हैं न रात। इस प्रकार सत् की अपेक्षा से असत् शब्द का प्रयोग होता है और असत् की अपेक्षा से सत् शब्द का प्रयोग होता है। जहाॅं परमात्मा को सत् कहा जाता है वहाॅं असत् की अपेक्षा से ही कहा जाता है परन्तु जहाॅं असत् का ही अभाव है वहाॅं परमात्मा को सत् नहीं कह सकते जो परमात्मा निरंतर सत् है उसको असत् नहीं कह सकते इसलिए परमात्मा में सत् और असत् इन दोनों शब्दों का प्रयोग नहीं होता। वह ज्ञेय तत्त्व इन दोनों से विलक्षण है। जैसे सूर्य दिन-रात दोनों से विलक्षण केवल प्रकाश रूप है। यह ज्ञेय तत्त्व मन,वाणी और बुद्धि से सर्वथा अतीत है अतः उसकी सत् असत् संज्ञा नहीं हो सकती। विशेष - वास्तव में वह ज्ञेय तत्त्व जानने में आता नहीं है क्योंकि प्रकृति से अतीत होने के कारण वह प्रकृति की पकड़ में नहीं आता परन्तु स्वयं से प्राप्त किया जा सकता है। भगवान् ने गीता में तीन स्थानों पर तीन प्रकार से वर्णनकिया है- 1.सदसच्चाहमर्जुन (9/19) 2.सदसत्तत्परं यत् (11/37) 3.न सत्तन्नासदुच्यते (13/12) इन तीनों प्रकार के वर्णन से भगवान् एक बात बतलाना चाहते हैं कि उस परम ब्रह्म का वर्णन शब्दों से नहीं किया जा सकता,कुछ-कुछ शब्द चल जाते हैं परन्तु वर्णन पूरा नहीं हो सकता,उसके समीप थोड़ा सा जाया जा सकता है- "शब्दातिगः शब्दशः"। जब बादलों के कारण कभी चन्द्रमा दिखते हैं और कभी नहीं दिखते हैं तब बच्चा कहता कि वह देखो पेड़ की शाखा के ऊपर से चन्द्रमा दिख रहा है। अब माॅं उस पेड़ की शाखा का सहारा लेकर देखती है तो चन्द्रमा दिख जाता है। वास्तव में पेड़ की शाखा और चन्द्रमा का कोई संबंध है नहीं लेकिन पेड़ की शाखा दिखाने से चन्द्रमा का दर्शन हो जाता है,दिशा निर्देश हो जाता है। उसी प्रकार शब्दों से परमात्मा मिलते नहीं लेकिन कुछ शब्द ऐसे हैं जिनका आधार लेकर देखते हैं तो परमात्मा का दर्शन हो जाता है इसको कहते हैं-"शाखा चन्द्रन्याय"। हमारे सारे ग्रंथ इसी प्रकार के हैं। परमात्मा तो तब प्राप्त होंगे जब सारे शब्द विलीन हो जाऍंगे लेकिन शब्दों का उपयोग किए बिना आप देखना चाहेंगे तो नहीं देख सकेंगे। भगवान् कहते हैं कि वह तत्त्व तो आदि-अनादि,पर-अपर और सत्-असत् से विलक्षण है। इसप्रकार का वर्णन करके भगवान् उस ज्ञेय तत्त्व की तरफ हमारा लक्ष्य कराते हैं। 🌹🍁🌹🍁🌹🍁🌹🍁🌹🍁🌹🍁🌹🍁🌹

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