🌹ॐ श्रीपरमात्मने नमः 🌹
अथ त्रयोदशोऽध्यायः
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्॥15॥
बहिः अन्तः=बाहर-भीतर(परिपूर्ण है), च=और,भूतानाम्=चराचर सब भूतों के,अचरम् चरम्=चर-अचर (प्राणियों के रूप में), एव=भी, च=और,सूक्ष्मत्वात्=अत्यन्त सूक्ष्म होने से,तत्=वह, अविज्ञेयम्=जानने में नहीं आते,दूरस्थम्=दूर में भी स्थित,च= और,अन्तिके=अति समीप में, च=और,तत्=वही है।
भावार्थ - वे परमात्मा सम्पूर्ण प्राणियों के बाहर-भीतर परिपूर्ण हैं और चर-अचर प्राणियों के रूप में भी वही है और वह अत्यन्त सूक्ष्म होने से जानने में नहीं आते तथा अति समीप में और दूर में भी वही है।
व्याख्या -
ज्ञेय तत्त्व का वर्णन 12वें से 17वें श्लोक तक हुआ है,उसमें यह चौथा श्लोक है। इस श्लोक में पहले के तीन श्लोक का और आगे के दो श्लोकों का भाव भी आ गया है।अतः यह श्लोक इस प्रकरण का सार है।
"बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च"-
सम्पूर्ण चराचर भूतों को बाहर से भी व्यापे हुए हैं और भीतर भी वही है और जो स्वयं चैतन्य है,प्राण शक्ति है वह भी वही तो है अर्थात् स्वयं भी परमात्मा स्वरुप ही है।
बर्फ की एक कटोरी बनाकर समुद्र में छोड़ दी जाय तो उस कटोरी के बाहर भी जल है,भीतर भी जल है और स्वयं वह कटोरी भी जल ही है।
तात्पर्य यह है कि जल के सिवाय दूसरा कुछ है ही नहीं,सब कुछ जल ही जल है। उसी प्रकार संसार में परमात्मा के सिवाय दूसरा कोई तत्त्व है ही नहीं। सब कुछ परमात्मा ही परमात्मा है। यही बात महात्माओं की दृष्टि से "वासुदेवः सर्वम्" और भगवान् की दृष्टि से "सदसच्चाहम्" है।
"दूरस्थं चान्तिके च तत्"-
वह परमात्मा देश,काल और वस्तु तीनों ही दृष्टियों से बहुत दूर भी हैं और बहुत पास में भी हैं। पहले भी वे ही थे बाद में भी वे ही रहेंगे और अभी भी वे ही हैं। विनाशशील पदार्थों के संग्रह और सुख भोग की इच्छा करने वालों के लिए तत्त्वतः समीप होने पर भी बहुत दूर हैं और जो लोग केवल परमात्मा के लिए ही सम्मुख हो जाते हैं उनके लिए नजदीक हैं। उत्कट अभिलाषा होते ही नित्ययोग का अनुभव हो जाता है।
जितना भी हम देखते हैं,सुनते हैं,कल्पना करते हैं वह सारा उसी के अन्तर्गत है।
"सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयम्"-
अत्यन्त सूक्ष्म होने से वे परमात्मा इन्द्रियों और अंतःकरण की पकड़ में नहीं आते। जैसे परमाणु रूप जल सूक्ष्म होने से नेत्रों को नहीं दिखता पर इसका अभाव नहीं है। वह जल परमाणु रूप में आकाश में रहता है और स्थूल होने पर बूंदों के रूप में दिखने लग जाता है। उसी प्रकार अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण परमात्मा इन्द्रिय,मन,बुद्धि आदि के द्वारा जानने में नहीं आते।वे इनसे परे,अतीत हैं। उनका ज्ञान होना बहुत कठिन है।
विशेष -
जीवों के अज्ञान के कारण ही वे परमात्मा अविज्ञेय हैं,जानने में नहीं आते। स्वयं के द्वारा ही जाना जा सकता है इसलिए ज्ञेय हैं। यह होने पर भी संसार की तरह ज्ञेय नहीं हैं। संसार इन्द्रिय,मन, बुद्धि आदि से जाना जाता है परन्तु परमात्मा इन्द्रिय,मन,बुद्धि से नहीं जाने जाते। इन्द्रिय,मन,बुद्धि प्रकृति के कार्य हैं परमात्मा प्रकृति के अतीत हैं।
दृढ़तापूर्वक मान लेना भी एक साधन ही है,दृढ़तापूर्वक मान लेने से जो अत्यन्त सूक्ष्म परमात्म तत्त्व है उसका अनुभव हो जाता है।
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