ब्रह्म बेदी | Brahm Bedi | Amargranth Sahib by Sant Rampal Ji Maharaj
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ज्ञान सागर अति उजागर, निर्विकार निरंजनं। ब्रह्मज्ञानी महाध्यानी, सत सुकृत दुःख भंजनं।1।
मूल चक्र गणेश बासा, रक्त वर्ण जहां जानिये। किलियं जाप कुलीन तज सब, शब्द हमारा मानिये।2।
स्वाद चक्र ब्रह्मादि बासा, जहां सावित्री ब्रह्मा रहैं। ॐ जाप जपंत हंसा, ज्ञान जोग सतगुरु कहैं।3।
नाभि कमल में विष्णु विशम्भर, जहां लक्ष्मी संग बास है। हरियं जाप जपन्त हंसा, जानत बिरला दास है।4।
हृदय कमल महादेव देवं, सती पार्वती संग है। सोहं जाप जपंत हंसा, ज्ञान जोग भल रंग है।5।
कंठ कमल में बसै अविद्या, ज्ञान ध्यान बुद्धि नासही। लील चक्र मध्य काल कर्मम्, आवत दम कुं फांसही।6।
त्रिकुटी कमल परम हंस पूर्ण, सतगुरु समरथ आप है। मन पौना सम सिंध मेलो, सुरति निरति का जाप है।7।
सहंस कमल दल भी आप साहिब, ज्यूं फूलन मध्य गन्ध है। पूर रह्या जगदीश जोगी, सत् समरथ निर्बन्ध है।8।
मीनी खोज हनोज हरदम, उलट पन्थ की बाट है। इला पिंगुला सुषमन खोजो, चल हंसा औघट घाट है।9।
ऐसा जोग विजोग वरणो, जो शंकर ने चित धरया। कुम्भक रेचक द्वादस पलटे, काल कर्म तिस तैं डरया।10।
सुन्न सिंघासन अमर आसन, अलख पुरुष निर्बान है। अति ल्यौलीन बेदीन मालिक, कादर कुं कुर्बान है।11।
है निरसिंघ अबंध अबिगत, कोटि बैुकण्ठ नखरूप है। अपरंपार दीदार दर्शन, ऐसा अजब अनूप है।12।
घुरैं निसान अखण्ड धुन सुन, सोहं बेदी गाईये। बाजैं नाद अगाध अग है, जहां ले मन ठहराइये।13।
सुरति निरति मन पवन पलटे, बंकनाल सम कीजिए। सरबै फूल असूल अस्थिर, अमी महारस पीजिए।14।
सप्त पुरी मेरूदण्ड खोजो, मन मनसा गह राखिये। उड़हैं भंवर आकाश गमनं, पांच पचीसों नाखिये।15।
गगन मण्डल की सैल कर ले, बहुरि न ऐसा दाव है। चल हंसा परलोक पठाऊॅ, भौ सागर नहीं आव है।16।
कन्द्रप जीत उदीत जोगी, षट करमी यौह खेल है। अनभै मालनि हार गूदें, सुरति निरति का मेल है।17।
सोहं जाप अजाप थरपो, त्रिकुटी संयम धुनि लगै। मान सरोवर न्हान हंसा, गंग् सहंस मुख जित बगै।18।
कालइंद्री कुरबान कादर, अबिगत मूरति खूब है। छत्र स्वेत विशाल लोचन, गलताना महबूब है।19।
दिल अन्दर दीदार दर्शन, बाहर अन्त न जाइये। काया माया कहां बपुरी, तन मन शीश चढाइये।20।
अबिगत आदि जुगादि जोगी, सत पुरुष ल्यौलीन है। गगन मंडल गलतान गैबी, जात अजात बेदीन है।21।
सुखसागर रतनागर निर्भय, निज मुखबानी गावहीं। झिन आकर अजोख निर्मल, दृष्टि मुष्टि नहीं आवहीं।22।
झिल मिल नूर जहूर जोति, कोटि पद्म उजियार है। उल्ट नैन बेसुन्य बिस्तर, जहाँ तहाँ दीदार है।23।
अष्ट कमल दल सकल रमता, त्रिकुटी कमल मध्य निरख हीं। स्वेत ध्वजा सुन्न गुमट आगै, पचरंग झण्डे फरक हीं।24।
सुन्न मंडल सतलोक चलिये, नौ दर मुंद बिसुन्न है। दिव्य चिसम्यों एक बिम्ब देख्या, निज श्रवण सुनिधुनि है।25।
चरण कमल में हंस रहते, बहुरंगी बरियाम हैं। सूक्ष्म मूरति श्याम सूरति, अचल अभंगी राम हैं।26।
नौ सुर बन्ध निसंक खेलो, दसमें दर मुखमूल है। माली न कुप अनूप सजनी, बिन बेली का फूल है।27।
स्वांस उस्वांस पवन कुं पलटै, नाग फुनी कुं भूंच है। सुरति निरति का बांध बेड़ा, गगन मण्डल कुं कूंच है।28।
सुन ले जोग विजोग हंसा, शब्द महल कुं सिद्ध करो। योह गुरुज्ञान विज्ञान बानी, जीवत ही जग में मरो।29।
उजल हिरम्बर स्वेत भौंरा, अक्षै वृक्ष सत बाग है। जीतो काल बिसाल सोहं, तर तीवर बैराग है।30।
मनसा नारी कर पनिहारी, खाखी मन जहां मालिया। कुभंक काया बाग लगाया, फूले हैं फूल बिसालिया।31।
कच्छ मच्छ कूरम्भ धौलं, शेष सहंस फुन गावहीं। नारद मुनि से रटैं निशदिन, ब्रह्मा पार न पावहीं।32।
शम्भू जोग बिजोग साध्या, अचल अडिग समाध है। अबिगत की गति नाहिं जानी, लीला अगम अगाध है।33।
सनकादिक और सिद्ध चैरासी, ध्यान धरत हैं तास का। चैबीसौं अवतार जपत हैं, परम हंस प्रकास का।34।
सहंस अठासी और तैतीसों, सूरज चन्द चिराग हैं। धर अम्बर धरनी धर रटते, अबिगत अचल बिहाग हैं।35।
सुर नर मुनिजन सिद्ध और साधिक, पार ब्रह्म कूं रटत हैं। घर घर मंगलाचार चैरी, ज्ञान जोग जहाँ बटत हैं।36।
चित्र गुप्त धर्म राय गावैं, आदि माया ओंकार है। कोटि सरस्वती लाप करत हैं, ऐसा पारब्रह्म दरबार है।37।
कामधेनु कल्पवृक्ष जाकैं, इन्द्र अनन्त सुर भरत हैं। पार्बती कर जोर लक्ष्मी, सावित्री शोभा करत हैं।38।
गंधर्व ज्ञानी और मुनि ध्यानी, पांचों तत्व खवास हैं। त्रिगुण तीन बहुरंग बाजी, कोई जन बिरले दास हैं।39।
ध्रुव प्रहलाद अगाध अग है, जनक बिदेही जोर है। चले विमान निदान बीत्या, धर्मराज की बन्ध तौर हैं।40।
गोरख दत्त जुगादि जोगी, नाम जलन्धर लीजिये। भरथरी गोपी चन्दा सीझे, ऐसी दीक्षा दीजिए।41।
सुलतानी बाजीद फरीदा, पीपा परचे पाइया। देवल फेरया गोप गोसांई, नामा की छान छिवाइया।42।
छान छिवाई गऊ जिवाई, गनिका चढी बिमान में। सदना बकरे कुं मत मारै, पहुँचे आन निदान में।44।
अजामेल से अधम उधारे, पतित पावन बिरद तास है। केशो आन भया बनजारा, षट दल कीनी हास है।44।
धना भक्त का खेत निपाया, माधो दई सिकलात है पण्डा पांव बुझाया सतगुरु, जगन्नाथ की बात है।45।...
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