दिलीप कुमार ने छह दशकों तक चले अपने फ़िल्मी करियर में मात्र 63 फ़िल्में की थीं लेकिन उन्होंने हिंदी सिनेमा में अभिनय की कला को नई परिभाषा दी. खालसा कॉलेज में उनके साथ पढ़ने वाले राज कपूर जब पारसी लड़कियों के साथ फ़्लर्ट करते थे, तो तांगे के एक कोने में बैठे शर्मीले दिलीप कुमार उन्हें बस निहारा भर करते थे. किसे पता था कि एक दिन यह शख़्स भारत के फ़िल्म प्रेमियों को मौन की भाषा सिखाएगा और उसकी एक निगाह भर, वह सब कुछ कह जाएगी, जिसको कई पन्नों पर लिखे डायलॉग भी कहने में सक्षम नहीं होंगे! जब दिलीप कुमार ने 1944 में अपने फ़िल्मी करियर की शुरुआत की तो पारसी थियेटर के प्रभाव की वजह से फ़िल्मों के अभिनेता लाउड एक्टिंग किया करते थे. मशहूर कहानीकार सलीम कहते हैं, 'दिलीप कुमार ने सबसे पहले भूमिका को अंडरप्ले करना शुरू किया और सूक्ष्म अभिनय की बारीकियों को पर्दे पर उतारा. उदाहरण के लिए उनके पॉज़ और जानबूझ कर मौन रहने की अदा ने दर्शकों पर ज़बरदस्त प्रभाव छोड़ा.' मुग़ल ए आज़म फ़िल्म में पृथ्वीराज कपूर का चरित्र ख़ासा प्रभावी और लाउड था. शहज़ादा सलीम की भूमिका में कोई और अभिनेता पृथ्वीराज कपूर के सामने उतना ही लाउड होने का लोभ संवरण नहीं कर पाता लेकिन दिलीप कुमार ने जानबूझ कर बिना अपनी आवाज़ ऊँची किए हुए अपनी मुलायम, सुसंस्कृत लेकिन दृढ़ आवाज़ में अपने डायलॉग बोले और दर्शकों की वाहवाही लूटी. दिलीप कुमार, राजकपूर और देवानंद को भारतीय फ़िल्म जगत की त्रि-मूर्ति कहा जाता है लेकिन जितने बहुमुखी आयाम दिलीप कुमार के अभिनय में थे उतने शायद इन दोनों के अभिनय में नहीं. राज कपूर ने चार्ली चैपलिन को अपना आदर्श बनाया तो देवानंद ग्रेगरी पेक के अंदाज़ में सुसंस्कृत, अदाओं वाले शख़्स की इमेज से बाहर ही नहीं आ पाए.
प्रस्तुति: रेहान फ़ज़ल
वीडियो एडिटिंग: मनीष जालुई
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