गरुड़ पुराण हिन्दू धर्म के प्रसिद्ध धार्मिक ग्रंथों में से एक है। वैष्णव सम्प्रदाय से सम्बन्धित 'गरुड़ पुराण' में मृत्यु के बाद सद्गति प्रदान करने वाला माना जाता है। इसलिये सनातन में मृत्यु के बाद 'गरुड़ पुराण' के श्रवण का प्रावधान है। इस के अधिष्ठातृ देव भगवान विष्णु हैं।
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ॐ नमो नारायण
सम्भवतः गरुणपुराण की रचना अग्निपुराण के बाद हुई। इस पुराण की सामग्री वैसी नहीं है जैसा पुराण के लिए भारतीय साहित्य में वर्णित है। इस पुराण में वर्णित जानकारी गरुड़ नेण विष्णु भगवान से सुनी और फिर कश्यप ऋषि को सुनाई।
पहले भाग में विष्णु भक्ति और उपासना की विधियों का उल्लेख है तथा मृत्यु के उपरान्त प्रायः 'गरूड़ पुराण' के श्रवण का प्रावधान है। दूसरे भाग में प्रेत कल्प का विस्तार से वर्णन करते हुए विभिन्न नरकों में जीव के पड़ने का वृत्तान्त है। इसमें मरने के बाद मनुष्य की क्या गति होती है, उसका किस प्रकार की योनियों में जन्म होता है, प्रेत योनि से मुक्त कैसे पाई जा सकती है, श्राद्ध और पितृ कर्म किस तरह करने चाहिए तथा नरकों के दारूण दुख से कैसे मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन प्राप्त होता है।
गरुड़ पुराण' के दूसरे अध्याय में यह वर्णन मिलता है, इसके अनुसार-
गरुड़ ने कहा- हे केशव! यमलोक का मार्ग किस प्रकार दुखदायी होता है। पापी लोग वहाँ किस प्रकार जाते हैं, मुझे बताइये। भगवान बोले- हे गरुड़! महान दुख प्रदान करने वाले यममार्ग के विषय में मैं तुमसे कहता हूँ, मेरा भक्त होने पर भी तुम उसे सुनकर काँप उठोगे। यममार्ग में वृक्ष की छाया नहीं है, अन्न आदि भी नहीं है, वहाँ कहीं जल भी नहीं है, वहाँ प्रलय काल की भांति बारह सूर्य तपते हैं। उस मार्ग से जाता हुआ पापी कभी बर्फीली हवा से पीडि़त होता है तोकभी कांटे चुभते हैं। कभी महाविषधर सर्पों द्वारा डसा जाता है, कहीं अग्नि से जलाया जाता है, कहीं सिंहों, व्याघ्रों और भयंकर कुत्तों द्वारा खाया जाता है, कहीं बिच्छुओं द्वारा डसा जाता है।
इसके बाद वह भयंकर 'असिपत्रवन' नामक नरक में पहुँचता है, जो दो हज़ार योजन के विस्तार वाला है। यह वन कौओं, उल्लुओं, गीधों, सरघों तथा डॉंसों से व्याप्त है। उसमें चारों ओर दावाग्नी है। वह जीव कहीं अंधे कुएं में गिरता है, कहीं पर्वत से गिरता है, कहीं छुरे की धार पर चलता है, कहीं कीलों के ऊपर चलता है, कहीं घने अन्धकार में गिरता है। कहीं उग्र जल में गिरता है, कहीं जोंकों से भरे हुए कीचड़ में गिरता है। कहीं तपी हुई बालुका से व्याप्त और धधकते ताम्रमय मार्ग, कहीं अंगार राशि, कहीं अत्याधिक धुएं से भरे मार्ग पर उसे चलना पड़ता है। कहीं अंगार वृष्टि, कहीं बिजली गिरने, शिलावृष्टि, कहीं रक्त की, कही शस्त्र की और कहीं गर्म जल की वृष्टि होती है। कहीं खारे कीचड़ की वृष्टि होती है। कहीं मवाद, रक्त तथा विष्ठा से भरे हुए तलाव हैं। यममार्ग के बीचो-बीच अत्यन्त उग्र और घोर 'वैतरणी नदी' बहती है। वह देखने पर दुखदायनी है। उसकी आवाज़ भय पैदा करने वाली है। वह सौ योजन चौड़ी और पीब तथा रक्त से भरी है। हड्डियों के समूह से उसके तट बने हैं। यह विशाल घड़ियालों से भरी है। हे गरुड़! आए पापी को देखकर वह नदी ज्वाला और धूम से भरकर कड़ाह में खौलते घी की तरह हो जाती है। यह विशाल घड़ियालों से भरी है। हे गरुड़! आए पापी को देखकर वह नदी ज्वाला और धूम से भरकर कड़ाह में खौलते घी की तरह हो जाती है। यह नदी सूई के समान मुख वाले भयानक कीड़ों से भरी है। वज्र के समान चोंच वाले बडे़-बड़े गीध हैं। इसके प्रवाह में गिरे पापी 'हे भाई', 'हा पुत्र', 'हा तात'। कहते हुए विलाप करते हैं। भूख-प्यास से व्याकुल हो पापी रक्त का पान करते हैं। बहुत से बिच्छु तथा काले सांपों से व्याप्त उस नदी के बीच में गिरे हुए पापियों की रक्षा करने वाला कोई नहीं है। उसके सैंकड़ों, हज़ारों भंवरों में पड़कर पापी पाताल में चले जते हैं, क्षणभर में ही ऊपर चले आते हैं। कुछ पापी पाश में बंधे होते हैं। कुछ अंकुश में फंसा कर खींचे जाते हैं और कुछ कोओं द्वारा खींचे जाते हैं। वे पापी गरदन हाथ पैरों में जंजीरों से बंधे होते हैं। उनकी पीठ पर लोहे के भार होते हैं। अत्यंत घोर यमदूतों द्वारा मुगदरों से पीटे जाते हुए रक्त वमन करते हैं तथा वमन किये रक्त को पीते हैं। इस प्रकार सत्रह दिन तक वायु वेग से चलते हुए अठाहरवें दिन वह प्रेत सौम्यपुर में जाता है।
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