भक्त को भगवान से और जिज्ञासु को ज्ञान से जोड़ने वाला एक अनोखा अनुभव। तिलक प्रस्तुत करते हैं दिव्य भूमि भारत के प्रसिद्ध धार्मिक स्थानों के अलौकिक दर्शन। दिव्य स्थलों की तीर्थ यात्रा और संपूर्ण भागवत दर्शन का आनंद। दर्शन दो भगवान!
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मार्कण्डेय ऋषि उनके सामने बैठे सभी ऋषियों को कथा सुनाना शुरू करते हैं की कैसे विष्णु जी ने माता लक्ष्मी को प्रकट किया और अपने अंदर से ब्रह्मा और शिव को प्रकट किया और फिर माता लक्ष्मी ने अपने दो रूपों सरस्वती और उमा को प्रकट किया। मार्कण्डेय ऋषि सभी को विष्णु जी के अवतारों की कथा भी सुनाते हैं जिसके कारण सृष्टि का निर्माण हुआ था। देवताओं और असुरों में युद्ध चल रहा था जिसे समाप्त करने के लिए माता लक्ष्मी जी ने देव गुरु ब्रहस्पति को देवताओं और असुरों में संधि करा कर समुद्र मंथन कराने के लिए कहती हैं। देव गुरु इंद्र को लेकर असुर राज बलि के पास जाते हैं और उनसे कहते हैं की देवासुर संग्राम को रोक कर आपस में संधि कर लें लेकिन असुर राज बलि नहीं मानता और उनसे कहता है की मैं अपने गुरु शुक्राचार्य से इस पर वार्ता करके ही निर्णय लूँगा। तो देव गुरु असुर गुरु शुक्राचार्य के पास जाते हैं। असुरों और देवताओं में संधि कराने के लिए महालक्ष्मी देवी सरस्वती को शुक्राचार्य के ह्रदय में निवास कर उनकी संधि कराने के लिए कहती हैं। शुक्राचार्य और ब्रहस्पति दोनों मिलकर देवताओं और असुरों में संधि करा देते हैं। ब्रहस्पति और शुक्राचार्य दोनों मिलकर देवताओं और असुरों के द्वारा समुद्र मंथन करने के लिए कहते हैं। असुर राज बलि समुद्र मंथन में मिलने वाले सभी वस्तुओं का बाँटने की बात करता है। शुक्राचार्य वस्तुओं को बाँटने के लिए महादेव से सलाह करने के लिए कहते हैं।
असुर राज बलि इंद्र देव शुक्राचार्य और ब्रहस्पति महादेव के पास आते हैं और उनसे समुद्र मंथन करने में मार्ग दर्शन करने के लिए कहते हैं। महादेव उनसे कहते हैं की हिमालय पर्वतमाला से एक पर्वत मंदार पर्वत को मथानी और वासुकि को रस्सी के तौर पर इस्तेमाल करके समुद्र मंथन करने को कहते हैं। असुर और देवता सगर मंथन शुरू कर देते हैं लेकिन मंदार पर्वत को स्थिर नहीं रख पाते इसके लिए माता लक्ष्मी विष्णु जी से कहती हैं की कछक रूप में पर्वत को स्थिर करने के लिए आधार दे कर समुद्र मंथन में मदद करे। विष्णु जी कछुआ रूप धारण कर लेते हैं और पर्वत को अपनी पीठ पर रख कर उसे आधार दे देते हैं। समुद्र मंथन शुरू हो जाता है और उसमें से काल कूट विष निकलता है जिसे महादेव आकर पाई जाते है और अपने कंठ में रोक लेते हैं। महादेव के कंठ में विश को धारण करने के कारण महादेव को निलकंठ का नाम भी देते हैं समुद्र मंथन फिर से प्रारम्भ हो जाता है। समुद्र मंथन से अश्वों का राजा निकलता है और फिर समुद्र मंथन से ऐरावत निकलता है। कुछ समय बाद समुद्र मंथन से कोसतुब मणि निकलती है। देवता और असुर सभी एक एक करके वस्तुओं को अपने लिए रखने की बात करते हैं। समुद्र मंथन से कामधेनु गाय निकलती है और फिर कल्प वृक्ष निकलता है।
उसके बाद समुद्र मंथन से चिंतामणि निकलती है। इन सभी वस्तुओं के बाद लक्ष्मी माता अपने महालक्ष्मी रूप को समुद्र मंथन से अवतरित करती हैं। देवी देवता और असुर लक्ष्मी माता की आराधना करते हैं। असुर राज लक्ष्मी माता को देख कर उसे अपने अधीन कर अपने साथ असुर लोक में ले जाने की ज़िद्द करता है। लक्ष्मी माता उसे। मना कर देती है। असुर राज बलि लक्ष्मी माता को बंदी बनाने की कोशिश करता है परंतु बना नहीं पाता। असुर राज बलि ने माता लक्ष्मी को बंदी बनाने की कोशिश की तो लक्ष्मी माता ने उसके सभी असुरों को अपने अंदर समा लिया। शुक्राचार्य असुर राज बलि को समझाते हैं और उसे कहते हैं की माता लक्ष्मी से क्षमा माँग ले वो स्वयं शक्ति का रूप हैं। असुर राज बलि माता लक्ष्मी से क्षमा माँगता है तो माता लक्ष्मी सभी असुरों को मुक्त कर देती है। नारद मुनि जी देव गुरु ब्रहस्पति और शुक्राचार्य को कहते हैं की माता लक्ष्मी सिर्फ़ उन्हीं के पास रहेगी जो त्रिगुणातीत होगा देवी लक्ष्मी उन्हीं के पास रहेगी। शुक्राचार्य और ब्रहस्पति यह पता लगाने के लिए ब्रह्म, विष्णु और महादेव के पास जाने की सोचते हैं की देखते हैं की कौन से देवता के साथ देवी लक्ष्मी का विवाह किया जा सकता है। शुक्राचार्य और ब्रहस्पति दोनों ब्रह्मा जी के पास जाते हैं और उन्हें चोर कह कर पुकारते हैं तो ब्रह्मा जी को क्रोध आ जाता है और वो उन दोनों पर शक्ति से प्रहार करते हैं नारद मुनि जी ब्रह्मा जी को ऐसा करने से रोक देते हैं और उन्हें बताते हैं की ये सब एक नाटक था। शुक्राचार्य और ब्रहस्पति तो सिर्फ़ ये जानना चाहते थे की आप त्रिगुणातीत हैं या नहीं। ब्रह्मा जी उन्हें माफ़ आकर देते हैं और उन्हें बताते हैं की वो लक्ष्मी के पति नहीं बन सकते। इसके बाद शुक्राचार्य और ब्रहस्पति महादेव के पास भी जाते हैं और उनका भी अपमान कर उन्हें क्रोधित कर देते हैं। महादेव उनसे क्रोधित हो उन्हें भस्म करने ही वाले थे की नारद मुनि जी और ब्रह्मा जी महादेव को आकर रोक देते हैं। महादेव उन्हें बताते हैं की मैं त्रिगुणातीत नहीं हूँ क्योंकि मुझमें क्रोध निवास करता है। त्रिगुणातीत तो सिर्फ़ क्षीर सागर में निवास करने वाले विष्णु हैं।
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