💠ईश्वर भक्ति के मार्ग पर चलने हेतु माया के संसार से विरक्त होना परमावश्यक है। वैराग्य के दो स्वरूप बताये गये हैं, एक क्षणिक वैराग्य, जिसे श्मशान वैराग्य भी कहते हैं, तथा दूसरा सहज वैराग्य। भक्ति मार्ग में वैराग्य क्यों आवश्यक है? क्या संसार को छोड़कर वनों में एकांत वास करने से वैराग्य सिद्ध हो जाता है? क्या गृहस्थ में रहकर संसार से विरक्त हो पाना सम्भव है? यदि हाँ, तो कैसे?
वैराग्य के विषय को महत्त्वपूर्ण मानकर साधकों को इसका समग्र रूप से बोध कराने हेतु जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने अपने एक स्वरचित पद 'तजो रे मन! छनभंगुर वैराग' की विस्तृत व्याख्या की है तथा अपने धारावाहिक प्रवचनों में वैराग्य संबंधी सम्पूर्ण विषय का संगोपाग निरूपण करते हुये साधकों के लिये जिस प्रकार का वैराग्य वांछनीय है, उस वैराग्य का वास्तविक स्वरूप प्रकाशित किया है।
भक्ति में दृढ़ता लाने हेतु ये परम उपयोगी व्याख्यान हैं। ये व्याख्यान सन् 1980 से पूर्व काल के हैं तथा इनकी वीडियो रिकॉर्डिंग उपलब्ध नहीं है, केवल ऑडियो रिकॉर्डिंग ही प्राप्त है। श्रोताओं के विशेष लाभ के दृष्टिगत हम उसी दुर्लभ ऑडियो को यहाँ वीडियो के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। सभी से अनुरोध है कि आप इस परम लाभदायक विषय का एकाग्रचित्त होकर श्रवण करें एवं अधिकाधिक लाभ प्राप्त करें।💠
इस वीडियो के कुछ अंश हैं—
एक तत्वज्ञ अपने मन से कहता है,अरे मन! छनभंगुर वैराग्य त्याग दो। मन से ही कहने का आशय ये है कि " मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयो: "। अर्थात् मन ही बन्धन और मोक्ष का कारण है। प्रत्येक कर्म का कर्ता ईश्वरीय राज्य में मन ही माना जाता है, इन्द्रियाॅं नहीं। जितनी देर तक आपलोग यहाॅं मन युक्त साधना करते हैं बस उतनी ही साधना आपकी ईश्वर के यहाॅं लिखी जाएगी। और जितनी देर साधना आप मन अन्यत्र आसक्त करके किए होंगे, कर रहे होंगे वो सब नहीं लिखी जाएगी। और अगर लिखी जाएगी तो जहाॅं मन की आसक्ति होगी उसकी उपासना लिखी जाएगी। तो इस प्रकार प्रत्येक वर्क का वर्कर, प्रत्येक कर्म का कर्ता केवल मन ही है। अतएव समस्त महापुरुषों ने, दार्शनिकों ने मन को ही संबोधित करके प्रत्येक उपदेश दिया है। तत्ववेज्ञता मन से कहता है क्षणभंगुर वैराग्य छोड़ दे। इसका मतलब ये कि वैराग्य एक छनभंगुर होता है, एक नित्य होता है। यदि एक वस्तु के छोड़ने का आदेश है तो इसका मतलब ये है कि उसका निगेटिव भी कुछ है। उसका विरोधी तत्व भी कुछ है। तो छनभंगुर वैराग्य के त्याग देने का अभिप्राय ये है कि कोई निर्णय वैराग्य भी होता है। उसको ग्रहण करना है।
—जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज
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कलियुग में दान को ही कल्याण का एकमात्र माध्यम बताया गया है। 'दानमेकं कलौयुगे'।
दान पात्र के अनुसार ही अपना फल देता है तथा भगवान एवं महापुरुष के निमित्त किया गया दान सर्वोत्कृष्ट फल प्रदान करता है।
हम साधारण जीव यथार्थ में यह नहीं जान सकते कि वास्तविक महापुरुष के प्रति किया गया हमारा दान/समर्पण हमारे कल्याण का कैसा अद्भुत द्वार खोल देगा। अतएव, समर्पण हेतु आगे बढिये।
आपकी यह दान राशी जीरकपुर (चंडीगढ़) स्थित *राधा गोविंद मन्दिर* के निर्माण कार्य में प्रयुक्त होगी।
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