ब्रह्मपुत्र नदी का एक हिस्सा, जमुना नदी, हर साल इन 'चर' के उभरने और ग़ायब होने का कारण बनती है. इन चरों में रहने वाले लोगों को ‘चौरा’ के नाम से जाना जाता है. उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी पानी के इसी उतार-चढ़ाव के आस-पास गुंथी हुई है. चौरे खेती करते हैं और छोटे समुदायों में रहते हैं. यह जानते हुए भी कि उन्होंने जो कुछ भी बनाया है वह मानसून के मौसम में नष्ट हो सकता है, वे चरों में ही रहना पसंद करते हैं.
इस फिल्म में मॉनसून के साथ-साथ शुष्क मौसम के हालात भी दिखाए गए हैं. यह वह वक्त है जब जमुना नदी पीछे हटती है और लंबे सफेद रेत के बिस्तर और उपजाऊ मिट्टी वाले नए द्वीप बनाती है. यहां रहने वाले एक चौरा, रहीम शॉरकार के पास अभी करने के लिए बहुत काम है और उन्हें उम्मीद है कि अगली बाढ़ के समय तक वह फसल काट लेंगे.
रहीम शहर में रहने के लिए अपना यहाँ का जीवन नहीं छोड़ना चाहते. हालाँकि, उनकी पत्नी आलिया का नज़रिया अलग है. उन्हें यहां अपने बच्चों का कोई खास भविष्य नहीं दिखाई देता.
किसी भी क्षण, उनका हश्र उनके पड़ोसी शुर उज़ ज़मान की तरह हो सकता है जो अपने जीवन में छठी बार इस बुरे दौर से गुज़र रहे हैं. उनके सारे खेत पानी में डूब गए हैं. और, दोबारा फिर से एक नई शुरुआत करने में उनकी सारी जमा पूंजी ख़र्च हो जाएगी.
इस पीड़ा को सभी चौरे जानते हैं. जब पानी के कारण उनके घरों की नालीदार लोहे की दीवारों को फिर से हटाकर कहीं ले जाने की ज़रूरत होती है, तो सभी एक-दूसरे की मदद करते हैं. यहां जीवन आसान नहीं है और आसान होगा भी नहीं. बल्कि इसके उलट जलवायु परिवर्तन, मानसून और शुष्क मौसम के चरम को तीव्र करने के लिए तैयार है.
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