आज के दौर में गीत और उनकी गायन शैली को हम देखें तो पता चलता है कि यह 'नयापन' बहुत सुकूनदायी नहीं है। 'नयापन' से तात्पर्य यह है कि जो वास्तव में नया होकर प्रभावित भी करें। ऐसा नयापन क्या कहीं दिखाई या सुनाई देता है ? शायद इसीलिए पुरानों का सम्मिश्रण (रीमिक्स) ज्यादा सुनाई दे रहा है। यह रीमिक्स न तो नया हो सका है और न ही पुराना रह गया है। यह सम्मिश्रण सर्वप्रिय या अधिसंख्य का प्रिय भी इसलिए नहीं हो पाया है क्योंकि इसमें रसाभाव है। किसी भी प्रकार का संचार नहीं है। नये दौर के गीतों से अंतरंग नहीं हो पाने की यही कठिनाई है। इन कठिनाईयों हम लोकगीतों में नहीं पाते हैं। वास्तव में श्रोताओं का लोकगीतों से इतना गहर जडाव उनकी स्थायी सरसता का प्रमाण है।
पश्चिम राजस्थान का मरूस्थल एवं पर्यटन के लिए प्रसिद्ध जैसलमेर के लोकगीतों की ख्याति उनकी विशेष गायन शैली के लिए रही है। यहाँ के लोकगीतों में हार्दिकता और अनुभूति की प्रधानता है। साथ ही लयात्मकता और संप्रेषणीयता को इन लोकगीतों ने बचा रखा है
चुनौतीपूर्ण एवं उत्तम कार्य है।