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महर्षि च्यवन व उनके वंशज

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महान ऋषि भृगु के पुत्र थे च्यवन ऋषि, इनकी माता का नाम पुलोमा था. ऋषि च्यवन को महान ऋषियों की श्रेणी में रखा जाता है इनके विचारों एवं सिद्धांतों द्वारा ज्योतिष में अनेक महत्वपूर्ण बातों आगमन हुआ इस कारण यह ज्योतिष गुरू रुप में भी प्रसिद्ध हुए तथा इनके द्वारा रचित ग्रंथों से ज्योतिष तथा जीवन के सही मार्गदर्शन का बोध हुआ.

च्यवन ऋषि जन्म कथा | Sage Chyavana Birth strory
ऋषि भृगु की पत्नी का नाम पुलोमा था एक बार जब भृगु ऋषि अपनी पत्नी के पास नहीं होते हैं तब राक्षस पुलोमन, उनकी पत्नी पुलोमा जबरन अपने साथ ले जाने के लिए आता है वह पुलोमन को बलपूर्वक ले जाने लगता है उस समय पुलोमा गर्भवती होती हैं और इस कारण इस संघर्ष में शिशु गर्भ से बाहर गिर जाते है और बालक के तेज से राक्षस पुलोमन भस्म हो जाता है, तथा पुलोमा पुन: अपने निवास स्थान भृगु ऋषि के पास आ जाती हैं .गर्भ से गिर जाने के कारण इनका नाम च्यवन पड़ा.
जन्म से ही च्यवन विद्वान और ज्ञानी थे वह एक महान ॠषि थे. इनके पुत्र का नाम और्व और इनका विवाह आरुषी से हुआ था जिससे इन्हें और्व नामक पुत्र प्राप्त हुआ. इनकी अन्य विवाह राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से भी हुआ था. ऋषि च्यवन ने बहुत कठोर तपस्या की थी वह लंबे समय तक निश्चल रहकर एक ही स्थान पर बैठे रहे. जैसे जैसे समय बीतता गया और उनका शरीर घास और लताओं से ढक गया तथा चीटियों ने उनकी देह पर अपना निवास बना लिया वह दिखने में मिट्टी का टिला सा जान पड़ते थे.
इस तरह बहुत समय गुज़र गया एक दिन राजा शर्याति की पुत्रि सुकन्या अपनी सखियों के साथ टहलती हुई च्यवन मुनि के स्थान जा पहुँची वहां पर मिट्टी के टीले में चमकते दो छिद्रों को देखकर चकित रह गई और कौतुहल वश देह को बांबी समझ उन छिद्रों को कुरेदने लगती हैं. उनके इस कृत्य से ऋषि की आंखों से रक्त की धारा निकलने लगती है और ऋषि च्यवन अंधे हो जाते हैं और क्रोधित होकर वह शर्याति की सेना का मल-मूत्र रुक जाने का शाप दे देते हैं. राजा शर्याति ने इस घटना से दुखी होकर उनसे विनय निवेदन करते हैं क्षमायाचना स्वरुप वह अपनी पुत्री को उनके सुपुर्द कर देते हैं इस प्रकार सुकन्या का विवाह च्यवन ऋषि से हो जाता है.
सुकन्या बहुत पतिव्रता थी वह च्यवन ऋषि की सेवा दिन रात लगी रहती. एक दिन च्यवन ऋषि के आश्रम में , देवों के वैद्य अश्‍वनीकुमारआ आते हैं. सुकन्या उचित प्रकार से उनका आदर-सत्कार एवं पूजन करती है. उसके इस आदर भाव व पतिव्रत से से प्रसन्न अश्‍वनीकुमार उसे आशीर्वाद प्रदान करते हैं वह च्यवन ऋषि को उनका यौवन व आंखों की ज्योती प्रदान करते हैं आँखों की ज्योती और नव यौवन पाकर च्यवन मुनि बहुत प्रसन्न होते हैं वह अश्चिनीकुमारों को सौमपान का अधिकार दिलवाने का वचन देते हैं.
यह सुनकर अश्विनी कुमार प्रसन्न होकर और उन दोनों को आशीर्वाद देकर वहाँ से चले जाते हैं. शर्याति जब च्यवन ऋषि के युवा हो जाने के बारे में सुनते हैं तो बहुत प्रसन्न होते हैं व उनसे मिलने जाते हैं. ऋषि च्यवन, राजा से कहकर एक यज्ञ का आयोजन कराते हैं. जहां वह यज्ञ का कुछ भाग अश्विनी कुमारों को प्रदान करते हैं. तब देवराज इन्द्र आपत्ति जताते हैं और अश्‍वनीकुमारों को यज्ञ का भाग देने से मना करते हैं
परंतु च्यवन ऋषि, इन्द्र की बातों को अनसुना कर देते हैं इससे क्रोधित होकर इन्द्र ने उन पर वज्र का प्रहार करने लगते हैं किंतु ऋषि च्यवन अपने तपोबल से वज्र को रोककर एक भयानक राक्षस उत्पन्न करते हैं. वह राक्षस इन्द्र को मारने के लिए दौडता है इन्द्र ने भयभीत होकर अश्‍वनीकुमारों को यज्ञ का भाग देना स्वीकार कर लेते हें और च्यवन ऋषि से क्षमा मांगते हैं च्यवन ऋषि का क्रोध शांत होता है और वह उस राक्षस को भस्म करके इन्द्र को कष्ट से मुक्ति प्रदान करते हैं.
एक बार च्यवन मुनि ने कुशिक वंश को पूर्ण रुप से समाप्त करना चाहा इसलिए वह राजा कुशिक के यहाँ अतिथि रूप में जाते हैं और इक्कीस दिनों तक उनकी कडी परीक्षा लेते हैं लगे. राजा-रानी उनकी सेवा में लग गये। इस प्रकार के अनेक कृत्य होने पर भी जब राजा कुशिक तथा रानी अपने कर्म से विचलित नही हुए तो च्यवन उनके सेवाभाव से बहुत प्रसन्न होते हैं और उन्हें एक अद्भुत स्वर्णमहल प्रदान करते हैं तथा वरदान स्वरूप उन्हें महापराक्रमी क्षत्रिय धर्मा वंशज(परशुराम) के उत्पन्न होने का वर देते हैं तथा वह कहते हैं की राजा कुशिक की तीसरी पीढ़ी से कौशिक वंश प्रारंभ होगा और तुम्हारे वंश गाधि को विश्वामित्र नामक ब्राह्मण-पुत्र की प्राप्ति होगी जो ब्राह्मण क पद प्राप्त करेगा. इतना कहकर ऋषि ने उन दोनों से विदा लेते हैं.
च्यवन मुनी द्वारा अनेक ग्रंथों की रचना हुई. उनके द्वारा रचित च्यवन स्मृति में उन्होंने विभिन्न तथ्यों के महत्व को दर्शाया. इसमें उन्होंने गोदान के महत्व के विषय में लिखा इसके साथ ही बुरे कार्यों से बचने का मार्ग एवं प्रायश्चि का विधान भी बताया. भास्कर संहिता में इन्होंने सूर्य उपासना और दिव्य चिकित्सा से युक्त "जीवदान तंत्र" भी रचा है जो एक महत्वपूर्ण मंत्र है. अनेक महान राजाओं ने इनके निर्णयों को अपने धर्म कर्म में शामिल किया.
च्यवन का विवाह मुनिवर ने गुजरात के भड़ौंच (खम्भात की खाड़ी) के राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से किया। भार्गव च्यवन और सुकन्या के विवाह के साथ ही भार्गवों का हिमालय के दक्षिण में पदार्पण हुआ। च्यवन ऋषि खम्भात की खाड़ी के राजा बने और इस क्षेत्र को भृगुकच्छ-भृगु क्षेत्र के नाम से जाना जाने लगा।
सुकन्या से च्यवन को अप्नुवान नाम का पुत्र मिला। द‍धीच इन्हीं के भाई थे। इनका दूसरा नाम आत्मवान भी था। इनकी पत्नी नाहुषी से और्व का जन्म हुआ।

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