जिस समय लखनऊ में योगी आदित्यनाथ उर्दू को कठमुल्लापन की भाषा से जोड़ रहे थे, उसी समय पांच सौ किलोमीटर दूर प्रधानमंत्री मोदी क़तर के अमीर को गले लगा रहे थे। विदेश नीति में प्रधानमंत्री इस्लामिक देशों से क़रीबी दिखाने की कोशिश करते हैं मगर उन्हीं की पार्टी के नेताओं के बयान ऐसी किसी भी कोशिश पर सवाल खड़ा कर देते हैं। सच वो है या सच ये है? क्या उर्दू भारत की भाषा नहीं है? क्या इस तरह से किसी भी भाषा को समाज के तानेबाने से अलग किया जा सकता है?
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