ध्यान के भाव में कीर्तन - एक अद्भुत अहसास | सामायिक के भावों के साथ प्रतिक्रमण | Jain Samayik Pratikraman | Arham Shri Pranamya Sagar Ji Maharaj | अर्हं श्री प्रणम्य सागर जी महाराज | Pratikraman
"हम तो कबहूँ न निज घर आये। पर घर फिरत बहुत दिन बीते नाम अनेक धराये।
हम तो कबहुँ न निज घर आये ।।"
पर पद निजपद मानि मगन है, परपरनति लपटाये । शुद्ध बुद्ध सुखकन्द मनोहर, चेतनभाव न भाये।
हम तो कबहुँ न निज घर आये ॥
नर, पशु, देव, नरक निज जान्यौ, परजय बुद्धि लहाये। अमल, अखण्ड, अतुल, अविनाशी आतमगुन नहिं गाये।
हम तो कबहुँ न निज घर आये ॥
यह बहु भूल भई हमरी फिर, कहा काज पछताये । 'दौल' तजौ अजहूँ विषयन को, सतगुरु वचन सुहाये॥
हम तो कबहुँ न निज घर आये ॥
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