कविश्री वृन्दावनदास
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||
मालिक हो दो जहान के जिनराज आपही |
एबो-हुनर हमारा कुछ तुमसे छिपा नहीं ||
बेजान में गुनाह मुझसे बन गया सही |
ककरी के चोर को कटार मारिये नहीं ||
हे दीनबंधु श्रीपति करुणानिधानजी |
यह मेरी विथा क्यों न हरो बेर क्या लगी ||१||