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महर्षि अंगीरा व उनके वंशज

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पुराणों में बताया गया है कि महर्षि अंगिरा ब्रह्मा जी के
मानस पुत्र हैं तथा ये गुणों में ब्रह्मा जी के ही समान हैं। इन्हें
प्रजापति भी कहा गया है और सप्तर्षियों में वसिष्ठ,
विश्वामित्र तथा मरीचि आदि के साथ इनका भी परिगणन
हुआ है। इनके दिव्य अध्यात्मज्ञान, योगबल, तप-साधना
एवं मन्त्रशक्ति की विशेष प्रतिष्ठा है। इनकी पत्नी दक्ष
प्रजापति की पुत्री स्मृति (मतान्तर से श्रद्धा) थीं, जिनसे
इनके वंश का विस्तार हुआ।
अंगिरा के 3 प्रमुख पुत्र थे। उतथ्य, संवर्त और बृहस्पति।
ऋग्वेद में उनका वंशधरों का उल्लेख मिलता है। इनके और
भी पुत्रों का उल्लेख मिलता है- हविष्यत्‌, उतथ्य,
बृहत्कीर्ति, बृहज्ज्योति, बृहद्ब्रह्मन्‌ बृहत्मंत्र; बृहद्भास और
मार्कंडेय। भानुमती, रागा (राका), सिनी वाली, अर्चिष्मती
(हविष्मती), महिष्मती, महामती तथा एकानेका (कुहू)
इनकी 7 कन्याओं के भी उल्लेख मिलते हैं। जांगीड़ ब्राह्मण
नाम के लोग भी इनके कुल के हैं।
अंगिरा देव को ऋषि मारीच की बेटी सुरूपा व कर्दम ऋषि
की बेटी स्वराट् और मनु ऋषि कन्या पथ्या ये तीनों विवाही
गईं। सुरूपा के गर्भ से बृहस्पति, स्वराट् से गौतम, प्रबंध,
वामदेव, उतथ्य और उशिर ये 5 पुत्र जन्मे। पथ्या के गर्भ से
विष्णु, संवर्त, विचित, अयास्य, असिज, दीर्घतमा, सुधन्वा
ये 7 पुत्र जन्मे। उतथ्य ऋषि से शरद्वान, वामदेव से
बृहदुकथ्य उत्पन्न हुए। महर्षि सुधन्वा के ऋषि विभ्मा और
बाज आदि नाम से 3 पुत्र हुए। ये ऋषि पुत्र रथकार में
कुशल थे। उल्लेखनीय है कि महाभारत काल में रथकारों
को शूद्र माना गया था। कर्ण के पिता रथकार ही थे। इस
तरह हर काल में जातियों का उत्थान और पतन कर्म के
आधार पर होता रहा है।
इनकी तपस्या और उपासना इतनी तीव्र थी कि इनका तेज
और प्रभाव अग्नि की अपेक्षा बहुत अधिक बढ़ गया। उस
समय अग्निदेव भी जल में रहकर तपस्या कर रहे थे। जब
उन्होंने देखा कि अंगिरा के तपोबल के सामने मेरी तपस्या
और प्रतिष्ठा तुच्छ हो रही है तो वे दु:खी हो अंगिरा के पास
गये और कहने लगे- 'आप प्रथम अग्नि हैं, मैं आपके तेज़
की तुलना में अपेक्षाकृत न्यून होने से द्वितीय अग्नि हूँ। मेरा
तेज़ आपके सामने फीका पड़ गया है, अब मुझे कोई अग्नि
नहीं कहेगा।' तब महर्षि अंगिरा ने सम्मानपूर्वक उन्हें
देवताओं को हवि पहुँचाने का कार्य सौंपा। साथ ही पुत्र रूप
में अग्नि का वरण किया। तत्पश्चात वे अग्नि देव ही बृहस्पति
नाम से अंगिरा के पुत्र के रूप में प्रसिद्ध हुए। उतथ्य तथा
महर्षि संवर्त भी इन्हीं के पुत्र हैं। महर्षि अंगिरा की विशेष
महिमा है। ये मन्त्रद्रष्टा, योगी, संत तथा महान भक्त हैं।
इनकी 'अंगिरा-स्मृति' में सुन्दर उपदेश तथा धर्माचरण की
शिक्षा व्याप्त है।
सम्पूर्ण ऋग्वेद में महर्षि अंगिरा तथा उनके वंशधरों तथा
शिष्य-प्रशिष्यों का जितना उल्लेख है, उतना अन्य किसी
ऋषि के सम्बन्ध में नहीं हैं। विद्वानों का यह अभिमत है कि
महर्षि अंगिरा से सम्बन्धित वेश और गोत्रकार ऋषि ऋग्वेद
के नवम मण्डल के द्रष्टा हैं। नवम मण्डल के साथ ही ये
अंगिरस ऋषि प्रथम, द्वितीय, तृतीय आदि अनेक मण्डलों
के तथा कतिपय सूक्तों के द्रष्टा ऋषि हैं। जिनमें से महर्षि
कुत्स, हिरण्यस्तूप, सप्तगु, नृमेध, शंकपूत, प्रियमेध,
सिन्धुसित, वीतहव्य, अभीवर्त, अंगिरस, संवर्त तथा
हविर्धान आदि मुख्य हैं।
आंगिरसों के कुल में अनेक ऐसे ऋषि और राजा हुए
जिन्होंने अपने नाम से या जिनके नाम से कुलवंश परंपरा
चली, जैसे देवगुरु बृहस्पति, अथर्ववेद कर्ता अथर्वागिरस,
महामान्यकुत्स, श्रीकृष्ण के ब्रह्माविद्या गुरु घोर आंगिरस
मुनि। भरताग्नि नाम का अग्निदेव, पितीश्वरगण, गौत्तम,
वामदेव, गाविष्ठर, कौशलपति कौशल्य (श्रीराम के नाना),
पर्शियाका आदि पार्थिव राज, वैशाली का राजा विशाल,
आश्वलायन (शाखा प्रवर्तक), आग्निवेश (वैद्य) पैल मुनि
पिल्हौरे माथुर (इन्हें वेदव्यास ने ऋग्वेद प्रदान किया),
गाधिराज, गार्ग्यमुनि, मधुरावह (मथुरावासी मुनि),
श्यामायनि राधाजी के संगीत गुरु, कारीरथ (विमान शिल्पी)
कुसीदकि (ब्याज खाने वाले) दाक्षि (पानिणी व्याकरणकर्ता
के पिता), पतंजलि (पानिणी अष्टाध्यायी के भाष्कार), बिंदु
(स्वायम्भु मनु के बिंदु सरोवर के निर्माता), भूयसि (ब्राह्मणों
को भूयसि दक्षिणा बांटने की परंपरा के प्रवर्तक), महर्षि
गालव (जैपुर गल्ता तीर्थ के संस्थापक), गौरवीति (गौरहे
ठाकुरों के आदिपुरुष), तन्डी (शिव के सामने तांडव
नृत्यकर्ता रुद्रगण), तैलक (तैलंग देश तथा तैलंग ब्राह्मणों के
आदिपुरुष), नारायणि (नारनौल खंड बसाने वाले), स्वायम्भु
मनु (ब्रह्मर्षि देश ब्रह्मावर्त के सम्राट मनुस्मृति के आदिमानव
धर्म के समाज रचना नियमों के प्रवर्तक), पिंगलनाग (वैदिक
छंदशास्त्र प्रवर्तक), माद्रि (मद्रदेश मदनिवाणा के सावित्री
(जव्यवान) के तथा पांडु पाली माद्री के पिता अश्वघोषरामा
वात्स्यायन हंडिदास वादेव (जनक के राजपुरोहित),
कर्तण (सूत कातने वाले), जत्टण (बुनने वाले जुलाहे),
विष्णु सिद्ध (काटि कोठारों के सुरक्षाधिकारी),
कण्व ऋषि (ब्रज कनवारौ क्षेत्र के तथा सौराष्ट्र के
कणवी जाति के पुरुष)
आदि हजारों का आंगिरस कुल में जन्म हुआ।

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