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जो मूर्ति को मानेगा वो गधे सामान है|भागवत पुराण स्कंद 10

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जो मूर्ति को मानेगा वो गधे सामान है|भागवत पुराण स्कंद 10
मूर्तिपूजा कम अक्ल वालों अर्थात् मूर्खी के लिए है
अग्निर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदि दैवतम्। प्रतिमा स्वल्प बुद्धीनां सर्वत्र समदर्शिनम्॥१९॥
(चाणक्य नीति अध्याय ४ श्लोक, १९)
अर्थ-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का देवता अग्नि अर्थात् अग्निहोत्र है, मुनियों के हृदय में देवता वास करते हैं, अल्प बुद्धि वालों को मूर्ति की पूजा ही काफी है, और समदर्शियों के लिए तो सर्वत्र देवता ही देवता दिखलाई पड़ते हैं।

अर्थात् मूर्त्ति पूजा अल्प बुद्धि वालों के लिए है। कम अक्ल वाले लोग क्या समझते हैं? यह पाठक स्वयं समझ लें।

पत्थर का लिंग शूद्र पूजते हैं शिवलिंगस्तु शूद्राणाम..

(शिव पुराण विन्ध्येश्वरी टीका संहिता १-१८)

अर्थ-पत्थर के लिंग की पूजा का विधान सिर्फ शूद्रों के लिए है। शूद्र का अर्थ ही मूर्ख होता है। द्विजातियों को और बुद्धिमानों को ये पत्थर के शिवलिंग कदापि नहीं पूजने चाहिए। यह पुराण का स्पष्ट आदेश है।

मूर्ख लोग मूर्ति को ईश्वर समझते हैं मृच्छिला धातुर्दार्वादि मूर्त्तावीश्वर बुद्धयः । क्लिश्यन्ति तपसामूढ़ाः परांशान्तिं न यान्ति ते ।।
(महानिर्वाण तन्त्र)
अर्थ-मूर्ख लोग मिट्टी, पत्थर, धातु अथवा लकड़ी की मूर्तियों को ईश्वर समझ कर उनकी पूजा करते हैं। इसलिए इनको कभी भी शान्ति प्रातः नहीं हो सकती है।

जलमय स्थान-तीर्थ, व मिट्टी तथा पत्थर से बनी हुई प्रतिमायें, देवता कदापि नहीं होते

न ह्यम्यानि तीर्थानि न देवा मृच्छिलामया। ते पुनन्त्युरू कालेन दर्शना देव साधवः ॥११॥

( भागवत् पुराण स्कन्द १०, अध्याय ८४, श्लोक ११)

अर्थ-जलमय स्थान तीर्थ नहीं कहलाते। मिट्टी और पत्थर की प्रतिमायें कदापि देवता नहीं होती हैं। जो तीर्थ और देवता होते हैं, वह भी देर से पवित्र करते हैं। परन्तु साधु जन तो केवल दर्शन मात्र से ही पवित्र कर देते हैं।

मूत्तिपूजक व तीर्थ यात्रा करने वाले व्यक्ति गधों के समान हैं

मूर्त्ति में पूज्य बुद्धि व जल में तीर्थ बुद्धि रखने वाले व्यक्ति 'गधे' हैं ये बात हम नहीं कहते, अपितु भागवत् खुद कहती है, देखिये-भागवत्, की खुली घोषणा है कि-
यस्यात्म बुद्धिः कुणपेत्रिधातुके, स्वधीः कलत्रादिषु भौम इज्यधीः। यःतीर्थ बुद्धिः सलिलेनकर्हिचित्, जनेषुभिज्ञेषु सः एव गौखरः ॥१३॥

( भागवत् पुराण स्कन्द १०, अध्याय ८४. श्लोक १३)

अर्थ-जो व्यक्ति इस शरीर को आत्मा समझता है। स्त्री व पुत्रादि को अपना समझता है और मिट्टी, पत्थर, काष्ठ आदि से बनी मूर्तियों को इष्टदेव मानता है तथा जो जल वाले स्थानों को तीर्थ समझता है, वह मनुष्य होने पर भी पशुओं में 'गधे' के समान ही है।
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