बेदिनी बुग्याल की सर्द हवाओं को चीरता हुआ घुड़सवारों का एक दल अब 'पातर नच्योंणी' से होता भगवाबासा को पार कर चुका था. त्रिशूल और नंदा घुंटी की ऊँची हिमालयी चोटियॉं अपनी सल्तनत में दाखिल हुए इन घुड़सवारों पर लगातार निगाहें बनाए हुए थी. इन घुड़सवारों के हिस्से अब एक चढ़ाई आनी थी जिसके पार वे सीधे इन दोनों विशाल पर्वतों के आगोश में लेटी उस घाटी में होते, जो उनके इस सफ़र की मंज़िल थी.
दाहिनी ओर 7120 मीटर ऊँचा भव्य त्रिशूल पर्वत और बाईं ओर 6309 मीटर ऊँची नंदा घुंटी. लेकिन अपनी मंज़िल तक पहुंचने से पहले ही इस चढ़ाई के दूसरे छोर पर इन घुड़सवारों की मुलाक़ात एक ऐसी ख़ामोश झील से हुई, जहॉं सैकड़ों इंसानी लाशें और नर कंकाल बिखरे हुए थे.. हिमालय की सर्द फ़िज़ाओं में लेटी एक ख़ामोश झील और उसकी बर्फ़ के पिघल जाने से बाहर उभर आई, उसमें बिखरी लाशें और नर कंकाल.
यह कोई फ़िल्मी नज़ारा नहीं बल्कि 2 अगस्त 1942 के दिन जीते जागते इंसानों के सामने, दिल दहला देने वाली हक़ीकत थी.
रहस्य और रोमॉंच से भरी इसी झील की कहानी के साथ पेश है 'हुआ यूॅं था' का अगला ऐपीसोड.. 'रहस्यों का रूपकुंड'.
स्क्रिप्ट : रोहित जोशी
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